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Thursday, October 28, 2010

विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम्

।।श्रीशिवोवाच।।
ब्राह्मि ब्रह्म-स्वरूपे त्वं, मां प्रसीद सनातनि !
परमात्म-स्वरूपे च, परमानन्द-रूपिणि !।।
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे, मां प्रसीद भवार्णवे।
सर्व-मंगल-रूपे च, प्रसीद सर्व-मंगले !।।
विजये शिवदे देवि ! मां प्रसीद जय-प्रदे।
-वेदांग-रूपे च, वेद-मातः ! प्रसीद मे।।
शोकघ्ने ज्ञान-रूपे च, प्रसीद भक्त वत्सले।
सर्व-सम्पत्-प्रदे माये, प्रसीद जगदम्बिके!।।
लक्ष्मीर्नारायण-क्रोडे, स्त्रष्टुर्वक्षसि भारती।
मम क्रोडे महा-माया, विष्णु-माये प्रसीद मे।।
काल-रूपे कार्य-रूपे, प्रसीद दीन-वत्सले।
कृष्णस्य राधिके भदे्र, प्रसीद कृष्ण पूजिते!।।
समस्त-कामिनीरूपे, कलांशेन प्रसीद मे।
सर्व-सम्पत्-स्वरूपे त्वं, प्रसीद सम्पदां प्रदे!।।
यशस्विभिः पूजिते त्वं, प्रसीद यशसां निधेः।
चराचर-स्वरूपे च, प्रसीद मम मा चिरम्।।
मम योग-प्रदे देवि ! प्रसीद सिद्ध-योगिनि।
सर्वसिद्धिस्वरूपे च, प्रसीद सिद्धिदायिनि।।
अधुना रक्ष मामीशे, प्रदग्धं विरहाग्निना।
स्वात्म-दर्शन-पुण्येन, क्रीणीहि परमेश्वरि !।।
।।फल-श्रुति।।
एतत् पठेच्छृणुयाच्चन, वियोग-ज्वरो भवेत्।
न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि।।
इस स्तोत्र का पाठ करने अथवा सुनने वाले को वियोग-पीड़ा नहीं होती और जन्म-जन्मान्तर तक कामिनी-भेद नहीं होता।
विधि - पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की सम्भावना होने पर इसका पाठ करना चाहिये। प्रणय सम्बन्धों में बाधाएँ आने पर भी इसका पाठ अभीष्ट फलदायक होगा।अपनी इष्ट-देवता या भगवती गौरी का विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करें। अभीष्ट-प्राप्ति के लिये कातरता, समर्पण आवश्यक है.

श्रीरामरक्षास्तोत्र

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्र ॥
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥

विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य । बुध-कौशिक ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । श्रीसीतारामचंद्रो देवता । सीता शक्तिः । श्रीमद् हनुमान कीलकम् ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि-न्यासः-
बुध-कौशिक ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छंदसे नमः मुखे । श्रीसीता-रामचंद्रो देवतायै नमः हृदि । सीता शक्तये नमः नाभौ । श्रीमद् हनुमान कीलकाय नमः पादयो ।श्रीरामचंद्र-प्रीत्यर्थे श्रीराम-रक्षा-स्तोत्र-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥

॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदाजानु-बाहुं धृत-शर-धनुषं बद्ध-पद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानं नव-कमल-दल-स्पर्धि-नेत्रं प्रसन्नम् ।
वामांकारूढ-सीता-मुख-कमल-मिलल्लोचनं नीरदाभम् ।
नानालंकार-दीप्तं दधतमुरु-जटामंडनं रामचंद्रम्॥
॥इति ध्यानम्॥

॥मूल-पाठ॥
चरितं रघुनाथस्य शत-कोटि प्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां, महापातकनाशनम् ॥ १॥
ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं, रामं राजीव-लोचनम् ।
जानकी-लक्ष्मणोपेतं, जटा-मुकुट-मण्डितम् ॥ २॥
सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्व-लीलया जगत्-त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥ ३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः, पापघ्नीं सर्व-कामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः ॥ ४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मख-त्राता, मुखं सौमित्रि-वत्सलः ॥ ५॥
जिह्वां विद्या-निधिः पातु, कण्ठं भरत-वंदितः ।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेश-कार्मुकः ॥ ६॥
करौ सीता-पतिः पातु, हृदयं जामदग्न्य-जित् ।
मध्यं पातु खर-ध्वंसी, नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु, सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु, रक्षः-कुल-विनाश-कृत् ॥ ८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु, जंघे दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषण-श्रीदः, पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ ९॥
एतां राम-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री, विजयी विनयी भवेत् ॥ १०॥
पाताल-भूतल-व्योम-चारिणश्छद्म-चारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तासे, रक्षितं राम-नामभिः ॥ ११॥
रामेति राम-भद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥
जगज्जैत्रैक-मन्त्रेण राम-नाम्नाऽभिरक्षितम् ।
यः कंठे धारयेत्-तस्य करस्थाः सर्व-सिद्धयः ॥ १३॥
वज्र-पंजर-नामेदं, यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र, लभते जय-मंगलम् ॥ १४॥
आदिष्ट-वान् यथा स्वप्ने राम-रक्षामिमां हरः ।
तथा लिखित-वान् प्रातः, प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥
आरामः कल्प-वृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रि-लोकानां, रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ १६॥
तरुणौ रूप-संपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुंडरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥
फल-मूलाशिनौ दान्तौ, तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥ १८॥
शरण्यौ सर्व-सत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्व-धनुष्मताम् ।
रक्षः कुल-निहंतारौ, त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९॥
आत्त-सज्ज-धनुषाविशु-स्पृशावक्षयाशुग-निषंग-संगिनौ ।
रक्षणाय मम राम-लक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २०॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चाप-बाण-धरो युवा ।
गच्छन्मनोरथोऽस्माकं, रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥
रामो दाशरथिः शूरो, लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णा, कौसल्येयो रघुत्तमः ॥ २२॥
वेदान्त-वेद्यो यज्ञेशः, पुराण-पुरुषोत्तमः ।
जानकी-वल्लभः श्रीमानप्रमेय-पराक्रमः ॥ २३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं, मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं, संप्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥
रामं दुर्वा-दल-श्यामं, पद्माक्षं पीत-वाससम् ।
स्तुवंति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ॥ २५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेंद्रं सत्य-सन्धं दशरथ-तनयं श्यामलं शांत-मूर्तम् ।
वंदे लोकाभिरामं रघु-कुल-तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६॥
रामाय राम-भद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ २७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम । श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रण-कर्कश राम राम । श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥
श्रीरामचंद्र-चरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्र-चरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचंद्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः । स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः । नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य, वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघु-नंदनम् ॥ ३१॥
लोकाभिरामं रण-रंग-धीरम्, राजीव-नेत्रं रघु-वंश-नाथम् ।
कारुण्य-रूपं करुणाकरं तम्, श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धि-मतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यम्, श्रीराम-दूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविता-शाखां वंदे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥ ३४॥
आपदां अपहर्तारं, दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥
भर्जनं भव-बीजानां अर्जनं सुख-सम्पदाम् ।
तर्जनं यम-दूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ ३६॥
रामो राज-मणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचर-चमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं पर-तरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् ।
रामे चित्त-लयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

विपत्तिनाश, सम्पदा-प्राप्ति, साधन-सिद्धि

विपत्तिनाश, सम्पदा-प्राप्ति, साधन-सिद्धि

(१) श्रीहनुमानजी का अनुष्ठान

"ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाबलप्रचण्डाय सकलब्रह्माण्डनायकाय सकलभूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षिणी-पूतना-महामारी-सकलविघ्ननिवारणाय स्वाहा।
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् (गायत्री)
ॐ नमो हनुमते महाबलप्रचण्डाय महाभीम पराक्रमाय गजक्रान्तदिङ्मण्डलयशोवितानधवलीकृतमहाचलपराक्रमाय पञ्चवदनाय नृसिंहाय वज्रदेहाय ज्वलदग्नितनूरुहाय रुद्रावताराय महाभीमाय, मम मनोरथपरकायसिद्धिं देहि देहि स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलसिद्धिदाय वाञ्छितपूरकाय सर्वविघ्ननिवारणाय मनो वाञ्छितफलप्रदाय सर्वजीववशीकराय दारिद्रयविध्वंसनाय परममंगलाय सर्वदुःखनिवारणाय अञ्जनीपुत्राय सकलसम्पत्तिकराय जयप्रदाय ॐ ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रूं फट् स्वाहा।"
विधिः-
सर्वकामना सिद्धि का संकल्प करके उपर्युक्त पूरे मन्त्र का १३ दिनों में ब्राह्मणों द्वारा ३२००० जप पूर्ण कराये। तेरहवें दिन १३ पान के पत्तों पर १३ सुपारी रखकर शुद्ध रोली अथवा पीसी हुई हल्दी रखकर स्वयं १०८ बार उक्त मन्त्र का जाप करके एक पान को उठाकर अलग रख दे। तदन्तर पञ्चोपचार से पूजन करके गाय का घृत, सफेद दूर्वा तथा सफेद कमल का भाग मिलाकर उसके साथ उस पान का अग्नि में हवन कर दे। इसी प्रकार १३ पानों का हवन करे।
तदन्तर ब्राह्मणों द्वारा उक्त मन्त्र से ३२००० आहुतियाँ दिलाकर हवन करायें। तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये।

(२) "ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमो भगवते हनुमते मम कार्येषु ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हुं फट् स्वाहा।"
विधिः-मंगलवार से प्रारम्भ करके इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करता रहे और कम-से-कम सात मंगलवार तक तो अवश्य करे। इससे इसके फलस्वरुप घर का पारस्परिक विग्रह मिटता है, दुष्टों का निवारण होता है और बड़ा कठिन कार्य भी आसानी से सफल हो जाता है।

(३) "हनुमन् सर्वधर्मज्ञ सर्वकार्यविधायक।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।"
या
"हनूमन्नञ्जनीसूनो वायुपुत्र महाबल।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।"
विधिः- प्रतिदिन तीन हजार के हिसाब से ११ दिनों में ३३ हजार जप जो, फिर ३३०० दशांश हवन या जप करके ३३ ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाये। इससे अकस्मात् आयी हुई विपत्ति सहज ही टल जाती है।

(४) "राजीवनयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।"
विधिः- ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर स्नान करके प्रतिदिन उपर्युक्त अर्धाली सहित मन्त्र की सात माला जप करना चाहिए और प्रत्येक माला की समाप्ति पर धूप-गुग्गुल की अग्नि में आहुति देनी चाहिये। सातों माला पूरी होने पर उस भस्म को यत्न से उठाकर रख लेना चाहिये और प्रतिदिन कार्य में लगते समय उसे ललाट पर लगा लेना चाहिये। यह जप तथा भस्म-धारण प्रतिदिन करते रहने से विपत्तियों का नाश और कार्य में सफलता की प्राप्ति होती है।

(५) "पुनि मन करम रघुनायक। चरन कमल बंदौ सब लायक।।
राजीवनयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
ॐ नमो भगवते सर्वेश्वराय श्रियः पतये नमः।।"
विधिः- उपर्युक्त चौपाईसहित इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार कम-से-कम जप करे। इससे विपत्तिनाश, सुखलाभ और स्त्रियों के द्वारा जपे जाने पर उनका सौभाग्य अचल होता है।

(६) "हे कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
आपद्भिः परिभूतां मां त्रायस्वाशु जनार्दन।।"
विधिः- इस मन्त्र का कम-से-कम १०८ बार स्वयं जप करे। कुछ दिन जपने के बाद स्वप्न में आदेश सम्भव है। अनुष्ठान के लिये ५१००० जप और दशांश ५१०० जप या आहुतियां आवश्यक है।

(७) "हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
आपद्भिः परिभूतां मां त्रायस्वाशु जनार्दन।।
हा कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन।
कौरवैः परिभूतां मां किं न त्रायसि केशवः।।"
विधिः- उपर्युक्त दोनों मन्त्रों का ३२ हजार जप करने से बड़े-बड़े संकट दूर हो जाते हैं।

(८) "ॐ कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।"
विधिः- प्रतिदिन विधिवत् भगवान् श्रीकृष्ण का या भगवान् विष्णु का पूजन करके उपर्युक्त मन्त्र का १२ दिनों में २५००० जप करने से स्वप्न के द्वारा कार्यसिद्धि का ज्ञान होता है।

(९) "ॐ नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
सर्वव्याधिविनाशाय प्रभो माममृतं कृधि।।"
विधिः- इस मन्त्र का प्रतिदिन प्रातःकाल जगते ही बिना किसी से कुछ बोले तीन बार जप करने से सब अनिष्ट का नाश होता है। इसका अनुष्ठान ५१००० मन्त्र जप तथा ५१०० दशांश हवन से सम्पन्न हो जाता है।

(१०) "ॐ रां श्रीं ऐं नमो भगवते वासुदेवाय ममानिष्टं नाशय नाशय मां सर्वसुखभाजनं सम्पादय सम्पादय हूं हूं श्रीं ऐं फट् स्वाहा।।"
विधिः- इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करना चाहिये।

(११) नमः सर्वनिवासाय सर्वशक्तियुताय ते।
ममाभीष्टं कुरुष्वाशु शरणागतवत्सल।।"
विधिः- इस मन्त्र का २१००० बार जप करना या कराना चाहिये तथा दशांश २१०० जप या हवन करना चाहिये।

Chakshumati Vidya

ॐ अस्याश्चाक्षुषीविद्याया अहिर्बुध्न्य ऋषिः, गायत्री छन्दः, सूर्यो देवता, ॐ बीजम्, नमः शक्तिः, स्वाहा कीलकम्, चक्षूरोगनिवृत्तये जपे विनियोगः।

ॐ चक्षुः चक्षुः चक्षुः तेजः स्थिरो भव। मां पाहि पाहि। त्वरितं चक्षुरोगान् शमय शमय। मम जातरूपं तेजो दर्शय दर्शय। यथाहम् अन्धो न स्यां तथा कल्पय कल्पय। कल्याणं कुरू कुरू। यानि मम पूर्वजन्मोपरर्जितानि चक्षुःप्रतिरोधकदुष्कृतानि सर्वाणि निर्मूलय निर्मूलय। ॐ नमः चक्षुस्तेजोदात्रे दिव्याय भास्कराय। ॐ नमः करूणाकरायामृताय। ॐ नमः सूर्याय। ॐ नमः भगवते सूर्यायाक्षितेजसे नमः। ॐ खेचराय नमः। ॐ महते नमः। ॐ रजसे नमः। ॐ तमसे नमः। ॐ असतो मा सद्गम्य। ॐ तमसो मा ज्योतिर्गमय। ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय। उष्णो भगवांछुचिरूपः। हंसो भगवान् शुचिरप्रतिरूपः।
ॐ विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं
हिरण्मयं ज्योतिरूपं तपन्तम्।
सहस्त्ररश्मिः शतधा वर्तमानः
पुरः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।।

ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाऽक्षितेजसेऽहोवाहिनिवाहिनि स्वाहा।।

ॐ वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं
प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि-
चक्षुर्मुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान्।।
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः। ॐ पुष्करेक्षणाय नमः। ॐ कमलेक्षणाय नमः। ॐ विश्वरूपाय नमः। ॐ श्रीमहाविष्णवे नमः। ॐ सूर्यनारायणाय नमः।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
य इमां चक्षुष्मतीविद्यां ब्राह्मणो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति। न तस्य कुले अन्धो भवति। अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा विद्यासिद्धिर्भवति।।

हे सूर्य भगवान् ! हे चक्षु के अभिमानी सूर्यदेव ! आप चक्षु में चक्षु के तेजरूप् से स्थिर हो जायंँ। मेरी रक्षा करें, रक्षा करें। मेरी आँख के रोगों का शीघ्र शमन करें, शमन करें। मुझो अपना सुवर्ण जैसा तेज दिखला दें, दिखला दें। जिससे मैं अन्धा न होऊँ, कृपया वैसे ही उपाय करें, उपाय करें। मेरा कल्याण करें, कल्याण करें। दर्शन शक्ति का अवरोध करने वाले मेरे पूर्वजन्मार्जित जितने भी पाप हैं, सबको जड़ से उखाड़ दें, जड़ से उखाड़ दें। ॐ नेत्रों के प्रकाश भगवान् सूर्यदेव को नमस्कार है। ॐ आकाशविहारी को नमस्कार है। ॐ परम श्रेष्ठ स्वरूप को नमस्कार है। ॐ (सबमें क्रिया शक्ति उत्पन्न करने वाले) रजोगुणरूप भगवान् सूर्य को नमस्कार है। (अन्धकार को सर्वथा अपने भीतर लीन करने वाल) तमोगुण के आश्रयभूत भगवान् सूर्य को नमस्कार है। हे भगवान् ! आप मुझे असत् से सत् की ओर ले चलिये। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिये। उष्ण स्वरूप भगवान् शुचिरूप हैं। हंस स्वरूप भगवान् सूर्य शुचि तथा अप्रतिरूप हैं - उनके तेजोमय स्वरूप की समता करने वाला कोई भी नहीं है।
ॐ जो सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, जो किरणों में सुशोभित एवं जातवेदा (भूत आदि तीनों कालों की बात जानने वाला) हैं, जो ज्योतिःस्वरूप, हिरण्मय (स्वर्ण के समान कान्तिवान्) पुरूष के रूप में तप रहे हैं, इस सम्पूर्ण विश्व के जो एकमात्र उत्पत्ति स्थान हैं, उन प्रचण्ड प्रतापवाले भगवान् सूर्य को हम नमस्कार करते हैं। वे सूर्यदेव समस्त प्रजाओं के समक्ष उदित हो रहे हैं।
ॐ षड्विध ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् आदित्य को नमस्कार है। उनकी प्रभा दिन का भार वहन करने वाली है, हम उन भगवान् के लिये उत्तम आहुति देते हैं।
जिन्हें मेधा अत्यन्त प्रिय है, वे ऋषिगण उत्तम पंखों वाले पक्षी के रूप में भगवान् सूर्य के पास गये और इस प्रकार प्रार्थना करने लगे - ‘भगवन् ! इस अन्धकार को छिपा दीजिये, हमारे नेत्रों को प्रकाश से पूर्ण कीजिये तथा अपना दिव्य प्रकाश देकर मुक्त कीजिये। ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः। ॐ पुष्करेक्षणाय नमः। ॐ कमलेक्षणाय नमः। ॐ विश्वरूपाय नमः। ॐ श्रीमहाविष्णवे नमः। ॐ सूर्यनारायणाय नमः।।’
जो ब्राह्मण इस चक्षुष्मतीविद्या का नित्य पाठ करता है, उसे नेत्र सम्बन्धी कोई रोग नहीं होता। उसके कुल में कोई अंधा नहीं होता। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का दान करने पर - इसका ग्रहण करा देने पर इस विद्या की सिद्धि होती है
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चाक्षुषी उपनिषद् की शीघ्र फल देने वाली विधिप्रतिदिन प्रातःकाल हल्दी घोल से अनार की शाखा की कलम से काँसे के पात्र में निम्नलिखित बत्तीसा यन्त्र को लिखे -
फिर उसी यन्त्र पर ताँबे की कटोरी में चतुर्मुख (चारों ओर चार बत्तियों का) घी का दीपक जलाकर रख दें। तदन्तर गन्ध-पुष्पादि से यन्त्र का पूजन करें। फिर पूर्व की ओर मुख करके हरिद्रा (हल्दी) की माला से ‘‘ॐ ह्रीं हंसः’’ इस बीज मन्त्र की छः मालाएँ जपकर चाक्षुषोपनिषद् के कम से कम बारह पाठ करें। पाठोपरान्त उपर्युक्त बीज मन्त्र की पाँच मालाएँ जपे। इसके बाद भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक अर्घ्य देकर प्रणाम करें और मन में यह निश्चय करें कि मेरा रोग शीघ्र नष्ट हो जायेगा। ऐसा करते रहने से इस उपनिषद् का नेत्ररोगनाश में अद्भुत प्रभाव बहुत शीघ्र देखने में आता है।

यदि इस पाठ के बाद हवन की इच्छा हो तो ‘‘ॐ नमो भगवते आदित्याय अहोवाहिनी अहोवाहिनी स्वाहा’’ इस मन्त्र की 108 आहुतियां दें।

Vidya Prapti Hetu

विद्या-प्राप्ति-प्रयोग
१॰ "ॐ ह्रीं क्लीं वद-वद वाग्वादिनी-भगवती-सरस्वति, मम जिह्वाग्रे वासं कुरु कुरु स्वाहा।"
२॰ "ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वाग्वादिनी-देवी सरस्वति, मम जिह्वाग्रे वासं कुरु कुरु स्वाहा।"

विधिः- प्रति-दिन प्रातःकाल उक्त मन्त्र का १०८ बार जप करे। बालकों को छोटी उम्र से इस मन्त्र का जप कराए। परिक्षा, नौकरी में तो इस मन्त्र के जप के द्वारा सफलता प्राप्त होती ही है, साथ ही नेतृत्व के गुण भी उत्पन्न होते हैं और समाज में प्रतिष्ठा एवं यश की प्राप्ति होती है। मन्त्र जप के समय श्वेत-वस्त्र, माला व आसन का प्रयोग करना चाहिए।
मन्त्र के जप के साथ-साथ 'सरस्वती-चूर्ण' का भी प्रयोग करे। 'सरस्वती-चुर्ण' के लिए आठ जड़ी-बूटियाँ- १॰ गुडची, २॰ अपामार्ग, ३॰ वायविडंग, ४॰ शंख-पुष्पी, ५॰ बच, ६॰ सोंठ, ७॰ शतावरी और ८॰ ब्राह्मी को पंसारी के यहाँ से समान भाग में लेकर चूर्ण बनाएँ। चूर्ण बनाते समय उक्त मन्त्र का स्मरण करता रहे। फिर इस अभिमन्त्रित चूर्ण का नित्य सेवन करे। चूर्ण के साथ समान मात्रा में गो-घृत एवं मिश्री भी लेवे। 'चूर्ण-सेवन' के बाद यथा-शक्ति गो-दुग्ध का पान करे। छः मास तक ऐसा करने से बालकों की बुद्धि निश्चित रुप में तीव्र होती है।

Wednesday, October 27, 2010

Durga Saptshati

There great Indian epic contains rituals of Mahashakti.

Friday, October 22, 2010

Swarvigyan

स्वर विज्ञान


आईने में क्या कभी आपने अपनी नाक को ध्यान से देखा है? अगर हाँ, तो बताइए हमारे जीवन में नाक की क्या उपयोगिता है? इस प्रश्न का उत्तर देने के बाद ही आगे पढ़ें। यदि आपका उत्तर भी यही है कि नाक हमारी प्रमुख ज्ञानेन्द्रिय है, इसके द्वारा हम गंध की पहचान एवं आवश्यक प्राणवायु ग्रहण करते हैं, तो आज तक आप भी एक महत्वपूर्ण एवं लाभदायक विज्ञान से अनभिज्ञ हैं।

इसके विपरीत यदि आपके उत्तर में स्वर-विज्ञान या स्वरोदय विज्ञान का भी उल्लेख है, तो निश्चित ही आप भाग्यवान हैं एवं ईश्वर के कृपापात्र हैं, क्योंकि स्वर विज्ञान को जानने वाला कभी भी विपरीत परिस्थितियों में नहीं फँसता और फँस भी जाए तो आसानी से विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर बाहर निकल जाता है।

प्राण वायु मनुष्य के शरीर में श्वास लेने पर नासिका के से प्रवेश करतीमाध्यम है। नासिका में दो छिद्र होते हैं, जो बीच में एक पतली हड्डी के कारण एक दूसरे से अलग रहते हैं। मनुष्य कभी दाहिने छिद्र से और कभी बाँएँ छिद्र से श्वास लेता है। दाहिने छिद्र से श्वास लेते समय “दाहिना स्वर” तथा बाँएँ छिद्र से श्वास लेते समय “बाँयाँ स्वर” चलता है। अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति जिस नासिका छिद्र से प्रतीत हो, उस समय वही स्वर चलता समझें। यदि दोनों नासिका-छिद्रों से समान रुप से निःश्वास होता हो, तो उसे “मध्य स्वर” कहते हैं। यह स्वर प्रायः उस समय चलता है, जब स्वर परिवर्तन होने को होता है।
वस्तुतः नासिका के भीतर से जो श्वास निकलती है, उसी का नाम “स्वर” है। जब दाहिना स्वर चलता हो तो, सूर्य का उदय जानना चाहिए। इसीलिए दाहिने स्वर को “सूर्य स्वर” भी कहते है तथा बाँएँ स्वर को “चन्द्र स्वर”।
स्वर का सम्बन्ध नाड़ियों से है। यद्यपि शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं तथापि इनमें से २४ प्रधान है और इन २४ में से १० अति प्रधान तथा इन १० में से भी ३ नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी गई है, जिनके नाम इड़ा, पिंगला तथा सुषम्णा है।
शरीर में मेरु-दण्ड के दक्षिण (दाहिने) दिशा की तरफ पिंगला (सूर्य) नाड़ी, वाम (बाँईं) तरफ इड़ा (चन्द्र) नाड़ी तथा दोनों के मध्य सुषम्णा नाड़ी है। सुषम्णा नाड़ी के प्रकाश से दोनों नथुनों से स्वर चलता है।


दाहिना-स्वर बायाँ-स्वर मध्य-स्वर
ग्रह सूर्य चन्द्र राहु
नाड़ी पिंगला इड़ा सुषुम्णा
प्रकृति उग्र सौम्य मिश्रित
धातु पित्त कफ वायु
लिंग पुरुष स्त्री नपुंसक
देवता शिव शक्ति अर्द्ध-नारीश्वर
वर्ण कृष्ण गौर मिश्रित या धूम्र
काल दिवस रात्रि सन्ध्या
प्रबल तत्त्व अग्नि, वायु जल पृथ्वी आकाश
संज्ञा चर स्थिर द्वि-स्वभाव
वार रवि, मंगल सोम, बुध बुध (या गुरु)
पक्ष कृष्ण शुक्ल

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